जब किसी काव्य (कविता/पंक्ति) में कोई शब्द एक ही बार प्रयोग में आया हो, किंतु प्रसंग के अनुसार उस शब्द के एक से अधिक अर्थ हों, वहाँ श्लेष अलंकार होता है।
श्लेष शब्द का शाब्दिक अर्थ होता है- चिपका हुआ होना या मिला हुआ होना अर्थात जब कई अलग-अलग अर्थ एक ही शब्द में चिपके हुए होते हैं, वहाँ श्लेष अलंकार माना जाता है।
1.रहिमन पानी राखिये,बिन पानी सब सून।
2.पानी गये न ऊबरै, मोती मानुष चून।
3.मधुबन की छाती को देखो, सूखी इसकी कितनी कलियाँ।
4.जे रहीम गति दीप की, कुल कपूत गति सोय ।
5.बारे उजियारो करै, बढ़े अंधेरो होय।
6.रावण सिर सरोज बनचारी।
7.चलि रघुवीर सिलीमुख धारी ।
8.जो घनीभूत पीड़ा थी मस्तक में स्मृति सी छाई।
9.दुर्दिन में आँसू बनकर आज बरसने आई ।
यहाँ घनीभूत शब्द से दो अर्थ निकल रहे हैं। पहला अर्थ है मनुष्य के मन में कुछ समय से इकट्ठी पीड़ा जो अब आँसू के रूप में बह निकली है। दूसरा अर्थ है मेघ बनी हुई अर्थात बादल जो कुछ दिनों से पानी को इकट्ठा कर रहे थे।
श्लेष अलंकार के भेद –
श्लेष अलंकार के दो भेद माने जाते हैं –
1. अभंग श्लेष 2. सभंग श्लेष
अभंग श्लेष– जिन पंक्तियों में शब्द को बिना तोड़े अनेक अर्थ निकलते हैं, वहाँ ‘अभंग श्लेष’ अलंकार होता है।
उदाहरण-
रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून।
पानी गए न ऊबरे, मोती मानुष चून।।
यहाँ ‘पानी’ के तीन अर्थ हैं – कांति (चमक), सम्मान और जल।
पानी के ये तीनों अर्थ उपर्युक्त दोहे में शब्द को तोड़े बिना ही निकलते हैं, इसलिए यहाँ ‘अभंग श्लेष’ अलंकार है।
जे रहीम गति दीप की, कुल कपूत गति सोय ।
बारे उजियारो करै, बढ़े अंधेरो होय।
गुन ते लेत रहीम जन, सलिल कूपते काढ़ि।
कूपहु ते कहुँ होत है, मन काहू के बाढ़ि ।
(गुण तथा रस्सी ) (प्यास बुझाने के लिए रस्सी की सहायता से कुएँ से जल निकाला जाता है। इसी प्रकार मन की गहराई से बात निकालने के लिए विश्वास की रस्सी से उसमें उतरा जाता है।)
रहिमन पानी रखिए , बिन पानी सब सून पानी गए न उबरे , मोती मानस चून। सुबरन को ढूंढत फिरत ,कवि व्यभिचारी चोर।
सभंग श्लेष- जिन पंक्तियों में शब्द विशेष से श्लेष का अर्थ निकालने के लिए शब्द को जोड़ा-तोड़ा जाता है, तो उसे ‘सभंग श्लेष’ कहते है।
उदाहरण-
मंगन को देख पट देत बार-बार है।
यहाँ ‘पट’ शब्द के दो अर्थ निकाले जा सकते हैं।
पहला अर्थ ‘वस्त्र’ दूसरा अर्थ ‘दरवाजा’ अर्थात हम इस पंक्ति का अर्थ ले सकते हैं कि कोई स्त्री बार-बार माँगने वाले को देखकर वस्त्र दे देती है। या हम कह सकते हैं कि कोई स्त्री बार-बार माँगने वाले को देखकर दरवाजा लगा देती है।
मधुबन की छाती को देखो, सूखी इसकी कितनी कलियाँ। (फूल बने से पहले की अवस्था तथा यौवन आने से पहले की अवस्था)
रावण सिर सरोज बनचारी। चलि रघुवीर सिलीमुख धारी । (बाण तथा भ्रमर) जो घनीभूत पीड़ा थी मस्तक में स्मृति सी छाई।
मधुबन की छाती को देखो, सूखी इसकी कितनी कलियाँ।
दुर्दिन में आँसू बनकर आज बरसने आई । (मनुष्य के मन में कुछ समय से इकट्ठी पीड़ा तथा मेघ बनी हुई अर्थात बादल)
विपुल धन अनेकों रत्न हो साथ लाए। प्रियतम बता दो लाल मेरा कहाँ है।। (रत्न तथा बालक)
रो-रोकर सिसक-सिसक कर कहता मैं करुण कहानी तुम सुमन नोचते सुनते करते जानी अनजानी (फूल तथा सुन्दर मन)
माया महाठगिनी हम जानी।
तिरगुन फाँस लिए कर डोलै, बोलै मधुरी बानी मेरी भव बाधा हरो राधा नागरि सोय।
जा तन की झाँई परे श्याम हरित दुति होय।। (यहाँ हरित शब्द के अर्थ हैं- हर्षित (प्रसन्न होना) और हरे रंग का होना। तथा श्याम शब्द के दो अर्थ हैं साँवला और कृष्ण) सीधी चलते राह जो, रहते सदा निशंक|
जो करते विप्लव, उन्हें, ‘हरि’ का है आतंक|| (पहला अर्थ है बन्दर एवं दूसरा अर्थ है भगवान।)