लाटानुप्रास अलंकार-
जब किसी काव्य (कविता) में किसी वाक्य अथवा वाक्यांश अथवा शब्द की आवृत्ति उसी अर्थ में होती है, किंतु उसके अन्वय (मूल अर्थ/ तालमेल) में परिवर्तन होता है, वहाँ लाटानुप्रास अलंकार होता है। (‘लाट’ शब्द का अर्थ है ‘समूह’ अर्थात जब समूह में उपस्थित वर्णों की आवृत्ति हो।)
उदाहरण-
‘पूत सपूत तो काहे धन संचय। पूत कपूत तो काहे धन संचय।।’ यहाँ ‘तो काहे धन संचय’ वाक्यांश (शब्द-समूह) की आवृत्ति उसी अर्थ में हो रही है, किंतु इसके अन्वय में अंतर है, अतः यहाँ लाटानुप्रास अलंकार है।
परीक्षा के दृष्टिकोण से अन्य उदाहरण-
तेगबहादुर, हाँ, वे ही थे गुरु-पदवी के पात्र समर्थ,
तेगबहादुर, हाँ, वे ही थे गुरु-पदवी थी जिनके अर्थ।
पराधीन जो जन, नहीं स्वर्ग ता हेतु।
पराधीन जो जन नहीं, स्वर्ग नरक ता हेतु।
राम भजन जो करत नहिं, भव-बंधन भय ताहि।
राम भजन जो करत, नहिं भव-बंधन भय ताहि।
पीय निकट जाके, नहीं घाम-चाँदनी ताहि।
पीय निकट जाके नहीं, घाम-चाँदनी ताहि।
लड़का तो लड़का ही है।
वही मनुष्य है जो मनुष्य के लिए मरे।
जननी तू जननी भयी।